क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित भैरवगढ़, अपनी मिट्टी और पानी की अनुकूल रासायनिक संरचना के कारण सदियों से रंग कारीगरों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। यद्यपि ऐतिहासिक दृष्टि से रंगाई और छपाई के आगमन की पृष्ठभूमि ज्ञात नहीं है, किन्तु महाकवि कालिदास की ‘तरुणकारगम’ वेश-भूषा वाली नायिका या ‘हंससिंह’ दुकुलवान’ प्रसन्नचित्त नायक स्वर्ण युग की रंग-बिरंगी पोशाकों का प्रतिनिधित्व करते हैं। सन्यासियों का भगवा चोला या वीर सैनिकों का केशरिया परिधान रंगों की संगति का प्रतीक है। रंगों के शिल्पियों को राजकीय संरक्षण प्रदान किए जाने के अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं।
यही कारण है कि आलू और बंधेज के ब्लॉकों से शुरू हुई भैरवगढ़ प्रिंट की यह परम्परा मिट्टी या लकड़ी के ब्लॉकों से होते हुए, अलीजेरिन रसायन और स्क्रीन प्रिंटिंग की प्रक्रिया से होते हुए भैरवगढ़ के लगभग 150 परिवारों को आजीविका प्रदान कर रही है। रंगाई और छपाई के मशीनीकरण ने शिल्पियों के काम को प्रभावित किया है, किन्तु उन्होंने जुझारूपन, कार्यकुशलता और समय और बाजार की मांग के अनुसार काम करने के तरीकों को अपनाकर अपनी परम्परा को जीवित रखा है। यहां तक कि वर्तमान में चल रहे “क्लासिक” और “एक्सक्लूसिव” के चलन में भी उच्च और मध्यम वर्ग के बीच पारंपरिक कपड़े की मांग बढ़ गई है।
भैरवगढ़ प्रिंटिंग को GI टेग मिला है जिसंमे उज्जैन को इस कला का केंद्र माना गया है। जीआई टेग से भैरवगढ़ प्रिन्ट को वैश्विक पहचान मिली है। इसके खरीदार देश विदेश से आ रहे है। मूल रूप से भैरवगढ़ प्रिन्ट के माध्यम से महिलाओ के वस्त्र जैसे साड़ी, सलवार कमीज, दुपट्टे यदि ज्यादा प्रचलित है। इसके साथ ही भैरवगढ़ प्रिन्ट के द्वारा चादर और परदे पर नई डिजाइन बनाने के लिए भी किया जाता है।
Bhairavgarh Prints Ujjain Handicraft: उज्जैन की प्राचीन हस्तकला